Tuesday, May 10, 2011

खून !


पता नही पहले से ऐसा था या नही,
अब तो पानी ही हो गया है खून हमारी रगो मे.

वक्तकी चाल चलता गया,
कतरा कतरा बदलता गया,
कभी लाल, कभी हरा, पीला, काला,
अब तो बेरंग ही हो गया, खून हमारी रगो मे.

सहनशीलता, मजबुरी या फिर कायरता,
जो चाहो कहो,
इतना ठंडा हो गया अब,
कभी गरम ही नही होता, खून हमारी रगोमे.

जिसने चाहा, जब-जैसे चाहा
सताया, लताडा, लूंटा हमें
पडा रहा दिल के नर्म कोने मे
आया ही नही, खून हमारी रगो मे.

इमान, धरम, देशप्रेम  और क्या क्या
पढा था कभी किताबो मे
अब तो बस हरी पती देख कर
दौडने लगता है, खून  हमारी रगो मे.

देखता हु आंखोसे, सुनता हु कानो से,
महसूस लेकीन कुछ नही होता,
दीमाग तो अलग ही हो गया खुद से,
बर्फ बन के ज़म गया, खून हमारी रगो मे.